Saturday, May 6, 2017

मुहब्बत ही नहीं काफी कड़ा तेवर जरूरी है
चुभे जो आंख को सबकी वो अब मंजर  जरूरी है ।।

उड़ाने ऊँची हों तो होंसला औ सब्र भी रखना
समन्दर की फतह को साथ में लंगर जरूरी है ।।

जमाना नर्म हर लहजे को कायरता समझता है
कहां तक हाथ जोड़ें हाथ अब खंजर जरूरी है ।।

सुना है की दीवारों के भी शायद कान होते हैं
सुनें खामोशियां जो वो दीवार औ दर जरूरी है ।।

तुम्हारे गम को पाला है फफोले हो गये दिल में
तुम्हीं आ जाओ जख्म ऐ दिल को चारागर जरूरी है ।।

                                          विपिन चौहान"मन"

Friday, May 5, 2017

वाक़िफ़ कहाँ ज़माना हमारी उड़ान से
वो और थे जो हार गए आसमान से

Monday, June 17, 2013


























मेरी आँखों में जो काजल की तरह रहता था
आज मुझ को वो ही इक शख्स रुलाता क्यों है..
ओ मुझे भूलने वाले ये बता दे मुझको
अब भी अक्सर मुझे याद तू आता क्यों है..

मेरी तरसी हुई आँखों के ये सूखे आँसू
वक्‍त बे-वक्‍त तेरे नाम पे रो जाते हैं
जब भी सीने में सिसक उठते हैं गुजरे लम्हें
मेरे सब ख्वाब तेरी याद में खो जाते हैं
तू मेरा कुछ भी नहीं है तो फिर
तेरी चाहत को मेरा प्यार बुलाता क्यों है..

ओ मुझे भूलने वाले ये बता दे मुझको
अब भी अक्सर मुझे याद तू आता क्यों है..

मेरे हाथों में तेरे नाम की मेंहदी न लगी
लाल जोड़ा भी तेरे नाम का न मेरा था
सातों फेरे मेरे तन्हा थे तेरे ही ग़म में
कितना रोता हुआ मायूस हर एक फेरा था
चाहा कह दूँ मैं ज़माने से कि तुम्हारी हूँ
गैर के घर मेरी डोली लिये जाता क्यों है...

ओ मुझे भूलने वाले ये बता दे मुझको
अब भी अक्सर मुझे याद तू आता क्यों है..


माँग मेरी तेरे सिन्दूर को सिसकती रही
हाथ मेरा तेरी छुअन के लिये
मेरी आँखें तेरी राह तका करती हैं
नींद मेरी तेरे नयन के लिये
फिर वो ही आगोश मुझे दे दे कहीं से आकर
मेरे अहसास से दामन को बचाता क्यों है

ओ मुझे भूलने वाले ये बता दे मुझको
अब भी अक्सर मुझे याद तू आता क्यों है..

बेवफ़ा तू भी नहीं, बेवफ़ा हम भी नहीं
तेरे जाने की खुशी भी नहीं, ग़म भी नहीं
तू नहीं सिर्फ तेरा प्यार मुझे याद है अब
याद वो रात, वो हर बात, वो सावन भी नहीं
दिल मेरा तेरी तमन्ना को छुपाता क्यों है

ओ मुझे भूलने वाले ये बता दे मुझको
अब भी अक्सर मुझे याद तू आता क्यों है..

मेरा माथा तेरी बिन्दी के लिये बेचैन रहा
उसकी तड़पन को जमाने से छुपाया मैंने
वो तेरा प्यार, तेरी कसमें, तेरे वादों का बदन
अजनबी सेज पर हँस हँस के बिछाया मैंने
तेरा हर ख्वाब मेरी आँखों ने जलाया लेकिन
दिल का हर ज़ख्म तेरा शुक्र जताता क्यों है...

ओ मुझे भूलने वाले ये बता दे मुझको
अब भी अक्सर मुझे याद तू आता क्यों है..

उम्र भर तुझसे मुझे इतना ग़िला रखना है
तू अगर चाहता पाना, मुझे पा सकता था
अपने सीने में थोड़ी सी जगह दे के मुझे
वक्‍त के बेरहम हाथों से बचा सकता था
भूल जाता अगर दुनिया की रिवाज़-ओ-रस्में
तो तेरा नाम मेरी रुसवाई छुपा सकता था

पर तेरे ग़म का असर मुझ पे नहीं है तो फिर
मेरा बेटा मुझे तुझ सा नजर आता क्यों है
ओ मुझे भूलने वाले ये बता दे मुझको
अब भी अक्सर मुझे याद तू आता क्यों है..
अब भी अक्सर मुझे याद तू आता क्यों है..





















एक रेल की पटरी पर , मैने भटकता बचपन देखा
मन में करुण कराह उठी,था उसे भटकता जिस क्षण देखा
कन्धे पर एक दूषित सा गन्दा बोरा लटकाये
चेहरे पर अपने जीवन की बेबसता का बोझ उठाये 
चला जा रहा था लेकिन उस ओर जहाँ सब जाते है 
मन्जिल मिलने से पहले, विश्राम पथिक कब पाते हैं
पैरों की दयनीय स्थिति कहती थी आराम करो
किन्तु पेट की अगन उसे धिक्कार रही थी काम करो
एक अजब से असमंजस में घिरा हुआ जीवन देखा 
मन में करुण कराह उठी था उसे भटकता जिस क्षण देखा
कचरा ,थैली ,दौने , बोतल बस ये ही खेल खिलौने थे 
धूप से झुलसी देह से बहते बूँदो में स्वप्न सलौने थे
आती जाती रेलों के बीच , वो प्रश्नचिन्ह खडा पाया
भारत की हर एक समस्या से,वो बचपन बहुत बडा पाया
भारत के सुखद भविष्यों पर ,जब भी कोई गीत बनाता है 
जब देश के ठेकेदारों को , कोई हर पँक्ति में सजाता है
तब दिल से उठती आह,रुदन में ऐसा बचपन होता है
जो घर की जिम्मेदारी में अपना यौवन खो देता है
उस वक़्त हमारे भारत का सारा विकास रुक जाता है 
जब कोई बच्चा फेंकी हुई जूँठन को उठा कर खाता है
क्या कारण है इस बच्चे तक कोई स्कूल नहीं पहुँचा ?
दो जून का भोजन भी सोचो तुम क्यूँ अनुकूल नहीं पहुँचा ?
क्या कारण तन को ढकने के संसाधन इसको नहीं मिले ?
जो पुष्प खुसी देते मन को क्यूँ इस धरती पर नहीं खिले ?
सर्दी से ठिठुरती रातों मे ,जब घुटने पेट को ढकते हैं
बारिश से टपकती झुग्गी मे,जब भीगे स्वप्न सुलगते हैं
जब घर मे आई रोटी पर छीना झपटी सी होती है
जब बच्चों को बिलखता देख,भूँख से बेबस ममता रोती है
उस वक़्त बालश्रम भारत की पहली मजबूरी लगता है
पटरी पे भटकता ये बचपन , तब बहुत जरूरी लगता है
पटरी पे भटकता ये बचपन ,तब बहुत जरूरी लगता है





















कुछ भीतर मेरे टूट रहा है
ये प्रेम रेत सा छूट रहा है
कारण क्या दूँ इस करुणा का
क्यूँ "मन" यूँ मन से रूठ रहा है
अब कलम हो चुकी शिथिल मेरी
और वाणी रिक्त विचारों से
विधवा सी हर रचना है मेरी
है दूर ये अब श्रंगारों से
ये करुण कथा करुणान्त हुई
अब कैसे इसे सुनाऊँगा
जो मेरी व्यथा का विवरण दें
वे शब्द कहाँ से लाऊँगा
तुमको पाने के सब प्रयास 
अब बचकाने से लगते हैं
जो भाव भक्ति थे श्रद्धा थे
वे ठग समान अब ठगते हैं
जो स्वप्न दिखाये तुमने वो
पल्कों पर अब तक जलते हैं
हे"प्यार" मेरे दुर्भाग्य तेरा
धरती अम्बर कब मिलते हैं
पर फिर भी मिलन की आस में मैं
हर बार क्षितिज तक आऊँगा
जो मेरी व्यथा का विवरण दें
वे शब्द कहाँ से लाऊँगा
आभास, विरह की बलिवेदी पर 
निज शीश स्वयं दे आये हैं
मधुमास अभिलाषी उपवन ने 
किस्मत से पतझड़ पाये हैं
संकोच हो रहा है मन को 
सच को दर्पण दिखलाने में
गीत भाव को बाजारों में 
आज बेचकर आये हैं
मैं व्यथित हृदय की आह मात्र
किस सुर में तुम्हें सजाऊँगा
जो मेरी व्यथा का विवरण दें 
वे शब्द कहाँ से लाऊँगा
तुम लौकिक सा संसार प्रिये
मैं निज अन्तर का अंधकार
तुम हो कुबेर का धन अथाह
मैं एक भिक्षु की भिक्षा सार
तुम नभ की ऊँचाई को भी
करती आलिंगनबद्ध सखे
मैं एक स्वाति की बूँद मात्र
खोज रहा निज का आधार 
इसलिये प्रयत्न ही छोड दिये
क्यूँकि न तुम्हें पा पाऊँगा
जो मेरी व्यथा का विवरण दें
वे शब्द कहाँ से लाऊँगा
जो मेरी व्यथा का विवरण दें
वे शब्द कहाँ से लाऊँगा

























आज मुझे आलिंगन देकर मुक्त करो हर भार से...
प्रियतम मेरा हाथ पकड़ कर ले चल इस मझधार से...

नयन मौन हैं किन्तु प्रणय की प्यास संजोये बैठे हैं..
भाव हृदय के स्मृतियों में अब तक खोये बैठे हैं...
तुमसे तृष्णा पाई है तृप्ति तुमसे अभिलाषित है..
विगत दिवस आकुल श्वासों में..खुद को बोये बैठे हैं..
निरीह हूँ लेकिन तुमसे तुमको माँग रहा अधिकार से..
प्रियतम मेरा हाथ पकड़ कर ले चल इस मझधार से..

मेरे स्वप्न तुम्हारी हठ की हठता पर नतमस्तक हैं...
कुछ प्रश्न प्रतीक्षक बने खड़े जिनके उत्तर आवश्यक हैं..
"मन" सोच रहा निज जीवन का सारांश तुम्हें ही कह डालूँ..
ये सत्य है जग को मालूम है, पर उत्तम कहो कहाँ तक है..
मेरे संशय को दो विराम , तुम अर्थपूर्ण उद्‌गार से..
प्रियतम मेरा हाथ पकड़ कर ले चल इस मझधार से..

आयाम छुये थे कभी प्रेम ने निच्छलता ,सम्मान के..
भेंट चढ गये सभी हौसले , झूठे निष्ठुर अभिमान के.
अब कौन दलीलों से व्याकुल उर की इच्छायें बहलाऊँ..
मेरी आस का दीपक लड़ते-लड़ते बस हार गया तूफान से..
ये अन्तिम जीवन सन्ध्या थी..अब चलता हूँ तेरे द्वार से..
काश तू मेरा हाथ पकड़ मुझे ले जाता मझधार से..
मुझे ले जाता मझधार से.....
















गुजरी सारी रात प्यार में..
मदमाती निश्चल काया ने
जब अपना सिर रखा हृदय पर
अधिक गर्व हो आया मुझको
उस व्याकुलता पूर्ण समय पर
कौन जीव जीवित रख पाता
खुद को ऐसे प्रेम प्रणय में
लौकिक सुख था, छलक उठा
तभी अचानक अश्रुधार में
गुजरी सारी रात प्यार में....

पल-पल मेरी सजग चेतना
हृदय खींचता ही जाता था
अब न तनिक भी देर रुको
यूँ मौन चीखता ही जाता था
पल-पल बढ़ती व्याकुलता और
समय बीतता ही जाता था
कदम बढ़ा कर जाने कैसे
रुक-रुक जाता बार-बार मैं..
गुजरी सारी रात प्यार में..

मेरा मुझसे निबल नियंत्रण
आज हटा ही जाता था
रक्त दौड़ता द्रुतगति से और
हृदय फटा ही जाता था
विस्मय था कि उग्र चेतना
लुप सी होने वाली थी
दो भागों में स्वयं कदाचित
आज बँटा ही जाता था
"मन" को पागल हो जाना था
उर मे फैले हाहाकार में
गुजरी सारी रात प्यार में...

तभी फैलने लगी सूर्य की
किरणें मेरे आँगन में
और चन्द्रमा अभी तलक
था सोया मेरे आलिंगन में
ऐसे क्षण तो कभी-कभी
ही आते हैं इस जीवन में
प्रेम साथ हो और कटे
रैना सारी खुले नयन में
हार-जीत की बातें करने से अब कोई लाभ नहीं
कभी-कभी छुप ही जाती है
जीवन भर की जीत हार में
गुजरी सारी रात प्यार में....
गुजरी सारी रात प्यार में....